बुधवार, 15 अप्रैल 2009

महज एक बात पूछूँगा

महज एक बात पूछूँगा।

घुमा कर अदा से गरदन
नजर तिरछी जो कर डाली।
खुदा जाने ये गेसू क्यों
झुके बन जुल्फ की जाली।
महज मुस्कान देने को
जो लव पे आ गई शिकनें।
कहर के खौफ से पागल
लगा ये आसमां कँपने।
समझ पाया नहीं जादू
किधर तूफान आया है।
जरा सी पास आ जाओ
बस इतनी बात पूछूँगा।
महज एक बात पूछूँगा।।

अरे पीना पिलाना क्या
जब आँखें ही शराबी हैं।
जरा साकी की हसरत क्या
जब तेरी नजर दानी है।
मगर रोको जरा सोचो
कहीं हम न डगमगा जायें।
यह दुनिया बेरहम जालिम
कहीं अन्जाम न दे दे।
मगर कैसे कहूँ के बस
घुमाओ जालिमी आँखें।
अगर थम जाये बेहोशी
तेरे जज्बात पूछूँगा।
महज एक बात पूछूँगा।।

मगर क्यों छेड़ दी तूने
अरे! यह रागिनी दिल की।
ये धड़कनें खो न जायें
कहीं बेहोश तन-मन की।
तेरी मीठी सुरीली तान
अरे! ये गूँजती क्यों है?
क्या दिल ही घेर डाली है
किसी ने जाजिमे दिल से।
अरे! कुछ साथ देने दे
अकेली ले रही ताने।
कहीं पर टूट जायेगी
तो किससे राग पूछूँगा?
महज एक बात पूछूँगा।।

सफर है जिन्दगी का यह
बड़ी मुश्किल, बड़ी सूनी।
न कोई रंग, न महफिल
और न कोई शगल दूजी।
कहाँ तक जायें बढ़ते हम
महज ईमान लेकर के।
मिलेगी भी कहीं मंजिल
सफर के बाद राहों पे।
न रुकते पैर मेरे शाने दिल
गर साथ कोई हमसफर होता।
बेगाने की मैं जानूँ क्या
तेरी ही बात पूछूँगा।
महज एक बात पूछूँगा।।

2 टिप्‍पणियां:

Dr.Aditya Kumar ने कहा…

भाईसाहब की काव्याभिव्यक्ति देख कर मन प्रसन्न एवं भावुक हो गया ,यह प्रयास सराहना के योग्य है.

Unknown ने कहा…

अरे वाह ,हमने कभी पढ़ी ही नहीं । एक सुखद और आश्चर्य मिश्रित ,एहसास हो रहा है। तुम्हे कहा से मिली यह सारी।