मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

आंसू

(१)
अरे ओ मन के सिंचित भाव,
छिपे क्यों इन नयनों की कोर!
कहाँ तक पिघलाओगे ठोस,
वेदना का य विगलित छोर!
(२)
नहीं वैतरणी, गंगा नहीं,
अरे यह तो है खारा नीर!
न होगी मुक्ति, न विस्मृति किंतु,
दूर होगी सब मन की पीर!
(३)
मधुरता में अन्तर्निहित शाप,
गरल में छिपा हुआ वरदान!
सीप में जल है जल में सीप,
शान्ति-मुक्ता पीढा का दान!
(४)
नहीं समझेगा यह संसार,
गूढ़ यह खारेपन की बात,
कीच में खिलता है अभिराम,
सहज यह मानस का जलजात!

बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

सहारा किसको मिलता है

न तू घबरा ऐ मेरे मन।
---सहारा किसको मिलता है।।
कली के पास भौरों का,
-- मधुर गुंजार होता है।
----- बिखर जाती हैं पंखुरियां,
-------- किनारा किसको मिलता है।
-------- सहारा किसको मिलता है।।
मिलन की आस में जलती,
-- शिखा भी सुबह होने तक।
---- मिटाती साँस को तिल-तिल,
------- वह प्यारा किसको मिलता है।
------- सहारा किसको मिलता है।।
गले मिलकर किनारे से,
-- लहर भी लौट पड़ती है।
---- विकल प्यासे ही जाना है,
------ दुबारा किसको मिलना है।
------ सहारा किसको मिलता है।।
गगन में लाखों ही तारे,
-- चमकते, मुस्कराते हैं।
---- अंधेरे में विकल धरती,
------- सितारा किसको मिलता है।
------- सहारा किसको मिलता है।।

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

विकल उर से मेरे अभिसार करले

वेदने तू आ, विकल उर से मेरे अभिसार करले।
आस ने जी को दुलारा,
सुख ने जीवन भर रुलाया।
शान्ति बन कर आयी चहेती,
आह मन का बुझ न पाया।
अब सहा जाता नहीं आकर ह्रदय का भर हर ले।
वेदने तू आ, विकल उर से मेरे अभिसार करले॥
दो घडी की मधुर चितवन,
पल भर का स्नेह कोरा।
लूट कर रस-भाव मेरे,
कर गया मन को अकेला।
आज एकाकी डगर में पग मिला कर ताल भर दे।
वेदने तू आ विकल उर से मेरे अभिसार करले॥
खोजता था मीत मन का,
ईषत नीले नयन-जल में।
विष भरा था प्राण घातक,
कौन कहता अटल-तल में।
विकल चेतन हत पडा हूँ सुधा का संचार कर दे।
वेदने तू आ विकल उर से मेरे अभिसार करले॥

रविवार, 5 अक्तूबर 2008

आना नहीं आंसू बहाने

प्राण रोवेंगे मगर आना नहीं आंसू बहाने।
जा रहा हूँ मैं अकेला,
छोड़ कर संबल तुम्हारा।
पहुँच पाऊँगा जहाँ तक,
ढूँढ लूँगा मैं किनारा।
पर कहीं यदि याद आयी मीत तेरे साथ की तो।
झपकती पलकें उठा कर तुम न फ़िर जगाने।।
अंत तक बढ़ता चलूँगा,
साँस का लेकर सहारा।
मधुर दिन की याद होगी,
प्रीत का होगा इशारा।
पर जो थक कर, चूर होकर, रात में मैं ढुलक जाऊं।
मन की पीढा जागती होगी न आना तुम सुलाने॥
देख पाओगे मगर क्या,
मीत मेरे अंत को भी?
सर मेरा पत्थर पर होगा,
घास की बिस्तर बनेगी।
चू पड़ेंगे निलय के कुछ फूल पंखुरीहीन होकर।
पहन लूँगा मैं कफ़न आना नहीं अंजलि चढाने॥

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

प्रीत करूँ यह रीति नहीं क्या?

प्रीत करूँ यह रीति नहीं क्या?
शलभ प्राण की पीड़ा लेकर,
भाव-कुभाव सभी सहता है।
शिखा विचारी ज्वाला पूरित,
ज़रा न उसका वश चलता है।

रोकर, हंस कर गले मिले तो,
प्राण गँवाए, जी जलता है।
कौन कहे यह प्रेम-मिलन है,
जग में इसकी रीति नहीं क्या?
प्रीत करूँ यह रीति नहीं क्या?

गुन-गुन कर भौंरा आता है,
मधुर पवन कुछ कह जाता है।
कलियों के मन के सब सपने,
कैसे रुके, छलक जाता है।

बुझती किसकी प्यास अरे,
मन की तृष्णा बाक़ी है।
बिखर गए सौरभ पांखुर सब,
कलियों की यह जीत रही क्या?
प्रीत करूँ यह रीति नही क्या?

सागर के भीतर हलचल है,
सरिता भी प्यासी की प्यासी।
वह तो बढ़ कर राह बनाता,
वह काले कोसों से आती।

किंतु मिलन के मधुर क्षणों में,
जलधारा यह बिखर गयी क्यों?
सागर भी सिमटा जाता है,
दोनों पर यह बीत रही क्या?
प्रीत करूँ यह रीति नहीं क्या?

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

तुम चांदनी बन कर आना

मैं तारे गिन-गिन जागूँ।
तुम चांदनी बन कर आना।।

जब उषा का श्रृंगार सजे,
कलियों को जब मधुमास लगे,
नव चटक ताल पर झूम-झूम,
जब उन्मुक्त भौरें नाच उठें।

मैं गीत मिलन के गाऊँ।
तुम मल्यालिन बन कर आना॥

जब तपती खूब दुपहरी हो,
धरती पर आग बरसती हो,
प्राणों को लेकर चूर-चूर,
छाया भी आप अकेली हो।

में तपन बीच सो जाऊं।
तुम सपने बन कर आना॥

जब रात अधिक अंधियारी हो,
तारों ने साज संवारी हो,
रजनी के श्यामल अलकों में,
चन्दा ने सुध-बुध हारी हो।

मैं वीणा के तार मिलाऊँ।
तुम रागिनी बन कर आना॥
तुम चांदनी बन कर आना॥

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

गीत तो वह याद है पर.......

गीत तो वह याद है पर स्वर खोते जा रहे हैं।
स्नेह के मंजुल क्षणों में,
प्राण का प्रतिदान लेकर,
मौन होकर निज व्यथा से,
या मिलन का ज्ञान खोकर;
चिर पिपासित हम मिले थे,
विरह का अवसान बनकर;
भूल न पाया घडी पर दृश्य मिटते जा रहे हैं।
गीत तो वह याद है पर स्वर खोते जा रहे हैं॥
मौनता के अंक में वह,
मूक वाणी चितवनों की;
अश्रू-जल की मुखर शक्ति,
विरह की तन्द्रिल कथाएं;
प्रणय-उश्मि घोल कर,
विस्मरण कर दीं व्यथाएं;
शब्द तेरे गूंजते पर भाव भूले जा रहे हैं।
गीत तो वह याद है पर स्वर खोते जा रहे हैं॥
जब न थम पाया ह्रदय में,
उमड़ कर आता प्रणय-स्वर;
गूँथ कर मंजुल लहरियां,
रागिनी भरती पवन;
झूम कर आसक्त- बोझिल,
खो दिया अस्तित्व अपना;
समर्पण भूला नहीं पर साथ छूटे जा रहे हैं।
गीत तो वह याद है पर स्वर खोते जा रहे हैं॥
ज्वार के उन्मुक्त क्षण में,
चेतना ने साथ छोड़ा;
ले चला संबल तुम्हारा,
दो क्षणों को स्वप्न जोड़ा;
पर न तुमको रोक पाया,
विश्व के संकुल डगर में;
पथ मिला पाथेय खोकर पग बढ़ते जा रहे हैं।
गीत तो वह याद है पर स्वर खोते जा रहे हैं॥

मार्ग दिखलाता रहूँगा

पंथ रहने दो अपरिचित, मार्ग रहने दो अकेला।
स्नेह का संबल मिला तो, मैं सदा बढता चलूँगा।
रात की निर्जन घडी है,
विपद में डूबा अँधेरा।
मेघ गर्जन झड़ लगी है,
सूझता न धाम, डेरा।
घोर झंझा, डगर भूला, बढ़ रहा मन का झमेला।
स्नेह की बाती जला दो, निडर मन चलता रहूँगा॥
आ पडी मझधार नैया,
पवन व्याकुल हो चला है।
व्यग्र लहरें उछल पड़तीं,
क्रुद्ध सागर डोलता है।
तडित चपला, वेग आंधी, ध्वंस का उन्मुक्त मेला।
प्रणय का पतवार दे दो, अनंत तक खेता चलूँगा॥
मान्यताएं तोड़नी हैं,
समय का वरदान लेकर।
विश्व-पथ को मोड़ना है,
स्नेह और वान्धुत्व देकर।
रूढिवादी, भाग्यसेवी, भारती निज भाव भूला।
ह्रदय का विश्वास दे दो, मार्ग दिखलाता रहूँगा॥

बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

पथ भूल न जाना तुम राही

पथ भूल न जाना तुम राही।
सूने कगरों से टकरा कर,
पर्वत के अंचल में बहना।
बिखरी टूटी पगडंडी में,
पग रोक सिमट आगे बढ़ना।
पथ छा लेंगी आगे बढ़ कर,
लघु हिमखंडों की उन्मादें।
यौवन की मधु-रस-धार भरी,
भुजपाश न फंसना तुम राही।
पथ भूल न जाना तुम राही।।
आयेंगी लास-विलास लिए,
मृदु सुमन समूहों की पातें।
झुक, झूम-झूम कर चूमेंगीं,
ये धूल भरी बोझिल साँसें।
न्यौछावर कर देगीं कलियाँ
नव सौरभ, यौवन, उन्मादें।
सुरभित, मस्तानी, मदमाती,
वय भार न दबना तुम राही।
पथ भूल न जाना तुम राही॥
कुछ ठहर-ठहर, कुछ झूम-झूम,
आयेंगी पछुआ सरसाती।
गुन-गुन के मिस कुछ कहती सी,
भ्रमावलि घूमेंगी इठलाती।
चू-चू कर रस रसालों से,
बह-बह कर मद इन ताडों से,
देगी बस प्याले के प्याले,
मधुपान न करना तुम राही।
पथ भूल न जाना तुम राही।।
दूर, दूर वह दूर देश है,
जिस तक तुमको जाना है।
कठिन-कठिन वह कठिन लक्ष्य है,
जिसको तुमको पाना है।
जर्जर तन है, गलित अंग है,
देश तपस्या भारी है।
कठिन शक्य ले, लक्ष्य अंक ले,
क्रान्ति जगाना तुम राही।
पथ भूल न जाना तुम राही।।