मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

विकल उर से मेरे अभिसार करले

वेदने तू आ, विकल उर से मेरे अभिसार करले।
आस ने जी को दुलारा,
सुख ने जीवन भर रुलाया।
शान्ति बन कर आयी चहेती,
आह मन का बुझ न पाया।
अब सहा जाता नहीं आकर ह्रदय का भर हर ले।
वेदने तू आ, विकल उर से मेरे अभिसार करले॥
दो घडी की मधुर चितवन,
पल भर का स्नेह कोरा।
लूट कर रस-भाव मेरे,
कर गया मन को अकेला।
आज एकाकी डगर में पग मिला कर ताल भर दे।
वेदने तू आ विकल उर से मेरे अभिसार करले॥
खोजता था मीत मन का,
ईषत नीले नयन-जल में।
विष भरा था प्राण घातक,
कौन कहता अटल-तल में।
विकल चेतन हत पडा हूँ सुधा का संचार कर दे।
वेदने तू आ विकल उर से मेरे अभिसार करले॥

2 टिप्‍पणियां:

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

क्यों विकलता अवसाद करती चेतना का साथ है
छूट जाए सब सहारे निज आत्मा निज हाथ है
छोड़ मन अवसाद सारा निज आत्मा में डूब जा
गर अधिक बैचैन है तो निज चेतना के पास जा

आपको मेरे ब्लॉग पर सादर आमंत्रण है मेरी नई रचना " कांग्रेसी दोहे " पढने के लिए
प्रतीक्षा है

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

शानदार रचना आपके आगमन के लिए धन्यबाद मेरी नई रचना शेयर बाज़ार पढने आप सादर आमंत्रित हैं
कृपया पधार कर आनंद उठाए जाते जाते अपनी प्रतिक्रया अवश्य छोड़ जाए