रविवार, 5 अक्तूबर 2008

आना नहीं आंसू बहाने

प्राण रोवेंगे मगर आना नहीं आंसू बहाने।
जा रहा हूँ मैं अकेला,
छोड़ कर संबल तुम्हारा।
पहुँच पाऊँगा जहाँ तक,
ढूँढ लूँगा मैं किनारा।
पर कहीं यदि याद आयी मीत तेरे साथ की तो।
झपकती पलकें उठा कर तुम न फ़िर जगाने।।
अंत तक बढ़ता चलूँगा,
साँस का लेकर सहारा।
मधुर दिन की याद होगी,
प्रीत का होगा इशारा।
पर जो थक कर, चूर होकर, रात में मैं ढुलक जाऊं।
मन की पीढा जागती होगी न आना तुम सुलाने॥
देख पाओगे मगर क्या,
मीत मेरे अंत को भी?
सर मेरा पत्थर पर होगा,
घास की बिस्तर बनेगी।
चू पड़ेंगे निलय के कुछ फूल पंखुरीहीन होकर।
पहन लूँगा मैं कफ़न आना नहीं अंजलि चढाने॥

2 टिप्‍पणियां:

Yusuf Kirmani ने कहा…

ब्रजेश भाई, अच्छी कविता है। मेरे ब्लॉग पर आने का शुक्रिया।

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

बेहतरीन शब्दों और खयालात से सजी बहुत बहुत बधाई मेरे ब्लॉग पर पधारने का धन्यबाद अपना आगमन नियमित बनाए रखे और मेरी नई रचना कैलेंडर पढने पधारें