गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

मार्ग दिखलाता रहूँगा

पंथ रहने दो अपरिचित, मार्ग रहने दो अकेला।
स्नेह का संबल मिला तो, मैं सदा बढता चलूँगा।
रात की निर्जन घडी है,
विपद में डूबा अँधेरा।
मेघ गर्जन झड़ लगी है,
सूझता न धाम, डेरा।
घोर झंझा, डगर भूला, बढ़ रहा मन का झमेला।
स्नेह की बाती जला दो, निडर मन चलता रहूँगा॥
आ पडी मझधार नैया,
पवन व्याकुल हो चला है।
व्यग्र लहरें उछल पड़तीं,
क्रुद्ध सागर डोलता है।
तडित चपला, वेग आंधी, ध्वंस का उन्मुक्त मेला।
प्रणय का पतवार दे दो, अनंत तक खेता चलूँगा॥
मान्यताएं तोड़नी हैं,
समय का वरदान लेकर।
विश्व-पथ को मोड़ना है,
स्नेह और वान्धुत्व देकर।
रूढिवादी, भाग्यसेवी, भारती निज भाव भूला।
ह्रदय का विश्वास दे दो, मार्ग दिखलाता रहूँगा॥

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