मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

आंसू

(१)
अरे ओ मन के सिंचित भाव,
छिपे क्यों इन नयनों की कोर!
कहाँ तक पिघलाओगे ठोस,
वेदना का य विगलित छोर!
(२)
नहीं वैतरणी, गंगा नहीं,
अरे यह तो है खारा नीर!
न होगी मुक्ति, न विस्मृति किंतु,
दूर होगी सब मन की पीर!
(३)
मधुरता में अन्तर्निहित शाप,
गरल में छिपा हुआ वरदान!
सीप में जल है जल में सीप,
शान्ति-मुक्ता पीढा का दान!
(४)
नहीं समझेगा यह संसार,
गूढ़ यह खारेपन की बात,
कीच में खिलता है अभिराम,
सहज यह मानस का जलजात!

1 टिप्पणी:

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

बहुत गंभीर भाव शब्दों का सहज प्रवाह
सुखमय अरु समृद्ध हो जीवन स्वर्णिम प्रकाश से भरा रहे
दीपावली का पर्व है पावन अविरल सुख सरिता सदा बहे

दीपावली की अनंत बधाइयां
प्रदीप मानोरिया