शनिवार, 1 नवंबर 2008

शिखा तू एक अकेली जल

शिखा तू एक अकेली जल।
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तम् की हर एक तह गहरी है,
नीरवता कितनी बहरी है।
अन्तर की पीड़ा को बेसुध, आप जलाती चल।
शिखा तू एक अकेली जल॥
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तिल-तिल कर मिटती साँसें हैं।
कैसी जग की भुज्पाशें हैं।
धागों के कच्चे बंधन में, सिहर न तू निश्छल।
शिखा तू एक अकेली जल॥
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क्यों सपनों की रात सजाती।
बरबस मन को क्यों भरमाती।
क्यों दीप आकाश जलाये, गिनती है पल-पल।
शिखा तू एक अकेली जल॥
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कैसी तेरी प्रीत घनेरी।
आतुरता करती है फेरी।
निर्मम, निष्ठुर, श्वेत पास को धुलती जा मल-मल।
शिखा तू एक अकेली जल॥
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नहीं ज्योति ने तुझे छला है।
सुख का सपना कहाँ जला है।
पगली, तेरे साथ तिमिर है, विकसित कर शतदल।
शिखा तू एक अकेली जल॥

6 टिप्‍पणियां:

Web Media ने कहा…

Andhakar Ke Saath Jine Ki Anubhuti Ko Jankar Nahut Sunder Shabdo Main Rachi Aapne Ye Kavita

Amit K Sagar ने कहा…

bahut khoob. ब्लोगिंग जगत में आपका स्वागत है. लिखते रहिये. शुभकामनयें.
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मेरे ब्लॉग पर आप सादर आमंत्रित हैं.

Udan Tashtari ने कहा…

हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है. नियमित लेखन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाऐं.

रचना गौड़ ’भारती’ ने कहा…

swagat hai . Badhaai ho . Likhate rahiye

दिगम्बर नासवा ने कहा…

नहीं ज्योति ने तुझे छला है।
सुख का सपना कहाँ जला है।
पगली, तेरे साथ तिमिर है, विकसित कर शतदल।
शिखा तू एक अकेली जल॥

अति सुंदर, सार-गर्भित रचना
प्रवाह बहुत ही अच्छा

नारदमुनि ने कहा…

kalyan ho, narayan narayan